जी हाँ, मैं ऐसा अपनी
एक आरटीआई पर उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यक आयोग द्वारा दी गयी सूचना के आधार पर कह रहा
हूँ.
अल्पसंख्यक आयोग द्वारा
दी गयी सूचना के अनुसार वित्तीय वर्ष
2011-12 में यूपी की
पूर्व सीएम मायावती
के कार्यकाल
में सूबे के
अल्पसंख्यक आयोग को
गैर वेतन वित्तीय
आवंटन रुपये 20,00,000/- और
वेतन मद में वित्तीय
आवंटन रुपये
96,39,000/- था. यूपी की
सत्ता संभालते ही
वित्तीय वर्ष
2012-13 में अखिलेश ने अल्पसंख्यक
आयोग के गैर वेतन
वित्तीय आवंटन को रुपये
20,00,000/- से घटाकर रुपये 10,00,000/- और
वेतन मद में वित्तीय
आवंटन रुपये
96,39,000/- से घटाकर रुपये 55,55,000/- कर
दिया था. यह
धनराशि पूर्ववर्ती सीएम मायावती
द्वारा किए गये
वित्तीय आवंटन की लगभग
आधी थी.
वित्तीय वर्ष
2013-14 में अखिलेश ने अल्पसंख्यक
आयोग के गैर
वेतन वित्तीय आवंटन
और वेतन मद
में वित्तीय
आवंटन में कमोवेश
वित्तीय वर्ष
2012-13 की स्थिति को ही
बहाल रखा. वित्तीय वर्ष
2013-14 में अल्पसंख्यक
आयोग को गैर
वेतन वित्तीय आवंटन
रुपये 10,00,000/- और वेतन
मद में वित्तीय आवंटन रुपये 58,95,000/- रहा.
वित्तीय वर्ष
2014-15 में अखिलेश ने अल्पसंख्यक
आयोग के गैर
वेतन वित्तीय आवंटन
को पुनः बढ़ाकर
मायावती के शासनकाल
के बराबर अर्थात
रुपये 20,00,000/- कर दिया
और वेतन मद
में वित्तीय
आवंटन में बढ़ोत्तरी
करते हुए उसे मायावती
के शासनकाल के
सापेक्ष आंशिक रूप से
बढ़कर रुपये 1,27,52,000/- कर
दिया.
बड़ा सबाल यह
है कि इस
कालखंड में न
तो अल्पसंख्यकों की
आवादी में कमी
आई थी और
न ही उनकी
समस्याओं में कमी
आई थी. ऐसे
में अखिलेश की
सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों
की शिकायतों के
त्वरित समाधान हेतु गठित
अल्पसंख्यक आयोग के
बजट को चंद्रमा
की कलाओं की
तरह घटाने-बढ़ाने
से एक बार
फिर सिद्ध कर
रही है कि
समाजवादी पार्टी के युवा
सीएम भी अल्पसंख्यकों
को गुमराह करने
की बाजीगरी में
सिद्धहस्त हो रहे
हैं और सूबे
में अल्पसंख्यक को
वोट- बैंक से अधिक
कुछ भी नहीं
समझा जाता है.
इससे पहली भी
आरटीआई में यह
सच्चाई सामने आ चुकी
है कि अखिलेश
सरकार ने सच्चर कमेटी की
रिपोर्ट पर तीन
साल में कोई भी
कार्यवाही नहीं की
है. ऐसे में
मुझे यह कहने
में कोई गुरेज़
नहीं है कि
अखिलेश सरकार का अल्पसंख्यक
प्रेम महज ढोंग
मात्र है.
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