लखनऊ / 27 May 2017
साल 2005 में सूचना कानून लागू होने के बाद यूपी के सरकारी
विभागों की पोल-पट्टी खोलने में मदद करने के लिए राज्य सूचना आयोग का गठन किया गया
था। आयोग के गठन के समय शायद ही किसी ने सोचा होगा कि आने वाले समय में जागरूक
नागरिक सूचना आयोग को ही आरटीआई की कसौटी पर कसेंगे और आरटीआई में दिए गए जबाबों
के आधार पर आयोग को ही कटघरे में खड़ा कर देंगे। यूपी की राजधानी लखनऊ के
मानवाधिकार कार्यकर्ता इं. संजय शर्मा द्वारा सूचना आयोग में दायर की गई आरटीआई के
जबाब से ऐसा खुलासा हुआ है
जिसने उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग की जबरदस्त लापरवाही को उजागर
करते हुए वर्तमान मुख्य सूचना आयुक्त और पूर्व मुख्य सचिव जावेद उस्मानी के साथ
साथ आयोग के सचिव राघवेंद्र विक्रम सिंह को कटघरे में खड़ा कर दिया है।
दरअसल संजय ने बीते 05 अप्रैल को सूचना आयोग में आरटीआई दायर कर जानना चाहा था कि
आयोग ने आरटीआई एक्ट की धारा 25 के अनुपालन
में कितनी वार्षिक रिपोर्टें तैयार कीं हैं।
आरटीआई कंसलटेंट संजय बताते हैं
कि एक्ट की धारा 25 यह कहती है
कि आयोग प्रत्येक वर्ष की एक वार्षिक रिपोर्ट तैयार करेगा जिसमें पूरे सूबे में RTI एक्ट के कार्यान्वयन का पूरा विवरण होगा। इस रिपोर्ट को
प्रत्येक वर्ष राज्य विधान मंडल सदन के समक्ष रखा जाना भी जरूरी है। बकौल संजय यह
रिपोर्ट उस साल के लिए सूचना आयोग का रिजल्ट होती है।
आयोग के जनसूचना अधिकारी तेजस्कर
पांडेय ने संजय को जो सूचना दी है उससे यह चौंकाने वाला खुलासा हो रहा है कि पूरे सूबे
को पारदर्शिता और जबाबदेही का पाठ पढ़ाने के लिए बनाया गया राज्य सूचना आयोग खुद
पारदर्शिता और जबाबदेही के पैमाने पर फ़ेल हो रहा है। संजय को दी गई सूचना के
अनुसार आयोग 11 सालों में महज 6 वार्षिक रिपोर्टें ही बना सका है। आयोग ने साल 2009-10,2011-12,2013-14,2014-15 और 2016-17 की सालाना रिपोर्टे बनाई ही नहीं हैं।
11 वर्षों में
से 5 वर्षों में सालाना रिपोर्टों को तैयार न किये जाने को सूचना
आयोग की घोर लापरवाही बताते हुए समाजसेवी संजय ने साल 2016-17 की सालाना रिपोर्ट अब तक तैयार न हो पाने के आधार पर आयोग के
मुख्य सूचना आयुक्त जावेद उस्मानी और सचिव राघवेंद्र विक्रम सिंह पर अक्षमता का
आरोप लगाते हुए कटघरे में खड़ा किया है और मामले की शिकायत यूपी के राज्यपाल और
सीएम से करने की बात कही है।
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