निगरानी का इस्तेमाल करें, छात्रों को स्कूल में बनाए रखने के लिए कार्यप्रणाली में सुधार लाए
ह्यूमन राइट्स वॉच में शोधकर्ता तथा इस रिपोर्ट की
लेखिका जयश्री बजोरिया का कहना है, “भारत की उसके सभी बच्चों को शिक्षित
करने की विशाल परियोजना अध्यापकों तथा स्कूलों के अन्य कर्मचारियों द्वारा
निर्धन एवं हाशिए पर रह रहे बच्चों के विरुद्ध गहराई तक जड़ें जमा चुके
भेदभाव का शिकार बनने के खतरे का सामना कर रही है”। वह कहती हैं, “खतरे का
सामना कर रहे समुदाय के बच्चें जो प्रायः अपने परिवार के वो पहले सदस्य
होते हैं जो कक्षा के भीतर दाखिल होते हैं, अध्यापक उन्हें प्रोत्साहित
करने के बजाय प्रायः उनकी उपेक्षा करते हैं और उनसे दुर्व्यवहार भी करते
हैं।”
(नई दिल्ली) – ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज जारी एक रिपोर्ट में कहा कि भारत
में स्कूल प्राधिकारी हाशिए पर रह रहे समुदायों के बच्चों के साथ लगातार
भेदभाव करते हैं, उन्हें शिक्षा के उनके अधिकार से वंचित करते हैं। भारत
में महत्वाकांक्षी शिक्षा कानून के लागू होने के चार वर्ष बाद, जिसमें6से
14वर्ष की आयु के प्रत्येक बच्चे के लिए मुफ्त स्कूली शिक्षा की गारंटी दी
गई है, लगभग हर बच्चे का दाखिला हुआ, तो भी उनमें से लगभग आधे बच्चों की
अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने से पूर्व ही स्कूल छोड़ देने की संभावना
बनी रहती है।
77पृष्ठों की रिपोर्ट “वे कहते हैं हम गंदे हैः भारत में हाशिए पर रह रहे लोगों कोशिक्षा से वंचित रखना”चार
भारतीय राज्यों में स्कूल प्राधिकारियों द्वारा दलित, आदिवासी,तथा मुस्लिम
बच्चों के विरुद्ध किए जा रहे भेदभाव का लेखाजोखा बयान करती है। यह भेदभाव
एक अप्रिय वातावरण का निर्माण करता है जिसके कारण बच्चा स्कूल से अकारण
गैर हाजिर हो सकता है और अंततः बच्चा स्कूल जाना बंद कर सकता है। निगरानी
की कमजोर कार्यप्रणाली उन बच्चों की पहचान करने और उनका पता लगाने में विफल
रहती है जो अनियमित तौर पर स्कूल जाते हैं, जिनके स्कूल छोड़ देने का खतरा
है,अथवा जो स्कूल छोड़ चुके हैं।
ह्यूमन राइट्स वॉच में शोधकर्ता तथा इस रिपोर्ट की लेखिका जयश्री बजोरिया
का कहना है, “भारत की उसके सभी बच्चों को शिक्षित करने की विशाल परियोजना
अध्यापकों तथा स्कूलों के अन्य कर्मचारियों द्वारा निर्धन एवं हाशिए पर रह
रहे बच्चों के विरुद्ध गहराई तक जड़ें जमा चुके भेदभाव का शिकार बनने के
खतरे का सामना कर रही है”। वह कहती हैं, “खतरे का सामना कर रहे समुदाय के
बच्चें जो प्रायः अपने परिवार के वो पहले सदस्य होते हैं जो कक्षा के भीतर
दाखिल होते हैं, अध्यापक उन्हें प्रोत्साहित करने के बजाय प्रायः उनकी
उपेक्षा करते हैं और उनसे दुर्व्यवहार भी करते हैं।”
मामले के विस्तृत अध्ययनों से पता चलता है कि कैसे जवाबदेही और शिकायत
निवारण तंत्रों का अभाव शिक्षा का अधिकार कानून के समुचित कार्यान्वयन में
निरंतर व्यवधान बना हुआ है। ह्यूमन राइट्स वॉच ने इस रिपोर्ट के लिए आंध्र
प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और दिल्ली राज्यों में अनुसंधान किए, बच्चों,
अभिभावकों, अध्यापकों तथा विभिन्न शिक्षा विशेषज्ञों, मानवाधिकार
कार्यकर्ताओं, स्थानीय प्राधिकारियों तथा शिक्षा अधिकारियों सहित 160से
अधिक लोगों से साक्षात्कार किया।
ह्यूमन राइट्स वॉच का कहना है कि भारत सरकार को अतिसंवेदनशील बच्चों के
साथ किए जानेवाले व्यवहार की निगरानी के लिए प्रभावी उपाय करने चाहिए तथा
यह सुनिश्चित करने के लिए कि वे कक्षाओं में बने रहें, इसके निदान के सहज
निवारण तंत्र उपलब्ध कराए जाने चाहिए। सरकार के अनुसार,लगभग आधे- आठ करोड़
से अधिक बच्चे- प्राथमिक शिक्षा पूरी करने से पूर्व ही स्कूल छोड़ देते
हैं।
बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार कानून का मसौदा तैयार
करते हुए, केंद्रीय सरकार ने बच्चों के अपवर्जन को “प्राथिमक शिक्षा को
सार्वभौमिक बनाने के मार्ग में एकमात्र सबसे बड़ी चुनौती”के रूप में
स्वीकार किया है। ह्यूमन राइट्स वॉच का कहना है“लेकिन राज्य, जिला एवं
स्थानीय स्तरों पर शिक्षा विभाग के अनेक अधिकारी इस बात का संज्ञान लेने या
इस बात को स्वीकार करने के अनिच्छुक हैं कि सरकारी स्कूलों में भेदभाव
होता है, इन समस्याओं से निबटने के प्रयास तो दूर की बात हैं”।
“अध्यापिका ने हमसे दूसरी ओर बैठने के लिए कहा”, उत्तर प्रदेश के आठ
वर्षीय आदिवासी बालक ‘‘पंकज’’ने कहा।, “यदि हम अन्य बच्चों के साथ बैठते
हैं तो वह हमें डांटती हैं और अलग बैठने को कहती हैं।अध्यापिका भी हमारे
साथ नहीं बैठतीं क्योंकि वह कहती हैं कि हम ‘गंदे’हैं”।
ह्यूमन राइट्स वॉच का कहना है कि संवैधानिक गारंटी तथा भेदभाव के
विरुद्ध कानूनों के बावजूद भारत में हाशिए पर रह रहे समूह भेदभाव का शिकार
बनते हैं। स्कूल प्राधिकारी जाति, नस्ल, धर्म अथवा लिंग के आधार पर पुरातन
समय से चले आ रहे भेदभावपूर्ण आचरण का ही समर्थन करते हैं। दलित, आदिवासी,
तथा मुस्लिम समुदाय के बच्चों को प्रायः कक्षा में सबसे पीछे या फिर अलग
कमरे में बैठने को कहा जाता है, उन्हें अपमानजनक नामों का प्रयोग करके
बेइज्जत किया जाता है, नेतृत्व की भूमिकाओं से वंचित रखा जाता है,और भोजन
भी आखिर में परोसा जाता है। उनसे शौचालय तक साफ कराए जाते हैं जबकि
पारंपरिक रूप से विशेषाधिकार प्राप्त समूहों के बच्चों से ऐसी अपेक्षा
नहीं की जाती है।
“भेदभावहीनता और समानता शिक्षा क अधिकार कानून के मूल तत्व हैं लेकिन
कानून में इसका उल्लंघन करने वालों के लिए दंड का कोई प्रावधान नहीं है,”
जयश्री बजोरिया ने कहा।“यदि स्कूलों को भारत के सभी बच्चों के लिए उनके
अनुकूल वातावरण का निर्माण करना है तो सरकार को यह कड़ा संदेश भेजना होगा
कि भेदभावपूर्ण व्यवहार अब और सहन नहीं किया जाएगा तथा इसके जिम्मेदार
लोगों के विरुद्ध कार्रवाई होगी।”
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि अधिकांश राज्यों के शिक्षा विभाग प्रत्येक
बच्चे की निगरानी तथा उनका स्कूल में बने रहना सुनिश्चित करने के लिए
त्वरित एवं प्रभावी हस्तक्षेप करने हेतु उचित तंत्र स्थापित करने में
विफल रहे हैं। क्योंकि इसका आंकलन करने की आम परिभाषा नहीं है कि कब यह
माना जाए कि बच्चे ने स्कूल जाना पूरी तरह बंद कर दिया है, विभिन्न राज्यों
के अलग-अलग नियम हैं: कर्नाटक में यदि बच्चा बिना बताए सात दिन अनुपस्थित
रहता है तो मान लिया जाता है कि उसने स्कूल छोड़ दिया है, आँध्र प्रदेश
में यह अवधि एक महीना है और छत्तीसगढ़ तथा बिहार में यह अवधि तीन महीने
है। एक आम परिभाषा का अभाव इस समस्या की पहचान तथा इसे सुलझाने में बाधा
डालता है।
शिक्षा का अधिकार कानून में इस बात का प्रावधान है कि जो बच्चें स्कूल
छोड़ चुके हैं, अथवा बड़ी आयु के बच्चे जो कभी स्कूल गए ही नहीं, उन्हें
उनकी आयु के हिसाब से पारंगत करने और मुख्यधारा के स्कूलों की कक्षाओं में
लाने के लिए “सेतु पाठ्यक्रम”शुरू करने चाहिएं।किंतु राज्य सरकारें इन
बच्चों का सही लेखाजोखा ही नहीं रखती हैं और न ही उपयुक्त सेतु
पाठ्यक्रमों के लिए अतिरिक्त संसाधनों का प्रावधान करती हैं,न ही वे इन
बच्चों की आयु के अनुरूप कक्षा में आने पर उनकी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने
तक इन बच्चों की निगरानी करती हैं।
आप्रवासी कामगारों के बच्चें, जिनमें से अधिकांश दलित या आदिवासी
समुदाय के होते हैं, अपने माता-पिता के साथ काम की तलाश में इधर-उधर घूमने
के कारण स्कूल से लंबे समय तक अनुपस्थित रहने के कारण स्कूल छोड़ने के
सर्वाधिक शिकार होते हैं। फिर भी राज्य सरकारें यह सुनिश्चित करने के लिए
कि ये बच्चे अपनी पढ़ाई पूरी करें, किसी व्यवस्थित तरीके से इनका
लेखाजोखानहीं रखती हैं। राज्य स्तर पर श्रम विभाग बाल मजदूरों को वापस
स्कूल लाने के कार्यक्रमों का उचित रूप से पालन नहीं कर रहे हैं। तथा राज्य
शिक्षा विभाग, जब एक बार किसी बच्चे का मुख्यधारा के स्कूल में दाखिला हो
जाता है तो, उस पर नजर नहीं रखते हैं जिसके परिणामस्वरूप बच्चे प्रायः काम
पर वापस लौट जाते हैं।
केंद्रीय एवं राज्य प्राधिकारी शिक्षा का अधिकार अधिनियम के अंतर्गत
‘‘स्कूल प्रबंधन समितियां’’जैसे जिन रचनात्मक समुदाय-आधारित तंत्रों की
कल्पना की गई है , उनके गठन में भी पर्याप्त सहयोग नहीं कर रहे हैं।
अभिभावकों ने ह्यूमनराइट्स वॉच को बताया कि उनका ऐसी समितियों में समुचित
प्रतिनिधित्व नहीं है और इसलिए जब उनके बच्चों के खिलाफ अन्याय होता है तो
वे शिकायत भी नहीं करते क्योंकि स्कूल प्राधिकारी या तो उन शिकायतों को
अनदेखा कर देते हैं या फिर बच्चों को डांटते-फटकारते हैं। शिकायतो के
निपटारे के लिए दिशानिर्देशों को प्रायः अमल में ही नहीं लाया जाता है।
भारत आर्थिक,सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार संबंधी अंतरराष्ट्रीय
समझौता और बाल अधिकार सम्मेलन सहिमत प्रमुख अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार
संधियों का सदस्य है जो बच्चों की रक्षा करती हैं और प्रत्येक व्यक्ति
को शिक्षा का अधिकार प्रदान करती हैं। अंतरराष्ट्रीयकानून
धर्म,नस्ल,सामाजिक मूल,या अन्य स्थिति के आधारपर भेदभाव का भी निषेध करते
हैं। बाल अधिकार सम्मेलन भारत को बच्चों की हाजिरी को प्रोत्साहित करने
और स्कूल छोड़ने की दर में कमी लाने के लिए उपाय करने,और यह
सुनिश्चितकरने के लिए बाध्य करता है कि कि बाल अधिकारों को प्रभावी
निगरानी के माध्यम से संरक्षित किया जाता है।
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा, भारत में अप्रैल, 2014के चुनाव से पूर्व,
प्रमुख राष्ट्रीय दलों ने अपने चुनावी घोषणापत्रों में प्राथमिक शिक्षा में
सुधार की वचनबद्धता व्यक्त की। केंद्रीय तथा राज्य सरकारों को इस प्रकार
के स्पष्ट संकेंत मिलने की प्रणाली विकसित करनी चाहिए जिससे स्कूलों में हो
रहे भेदभाव की जानकारी मिल सके और उसका निदान किया जा सके। तथा साथ ही
जिम्मेदार लोगों के विरुद्ध समुचित अनुशासनात्मक उपायों का उल्लेख हो।
सरकारों को दाखिले से लेकर आठवीं कक्षा तक प्रत्येक बच्चे की निगरानी
और पहचान की व्यवस्था विकसित करनी चाहिए। सरकार को अध्यापकों को समुचित
प्रशिक्षण प्रदान करने की पहल करनी चाहिए,ताकि वे बच्चों के अवर्जन को रोक
सकें और भिन्न सामाजिक-आर्थिक तथा जातिगत पृष्ठभूमि के बच्चों का मेलजोल
सुनिश्चित कर सकें।
“चुनाव अभियान के दौरान भारत के राजनीतिक दलों ने शिक्षा पर ध्यान
केंद्रित रखा,” जयश्री बजोरिया ने कहा।“किंतु जो भी सत्ता में आएगा उसे यह
सुनिश्चित करने के लिए अधिक काम करना होगा कि बच्चें कक्षाओं में उपस्थित
रहें। यदि सरकार इस समय हस्तक्षेप नहीं करती है तो एक मह्तवपूर्ण कानून का
विफल होना तय है।”
चयनित उद्धरण
जिनका साक्षात्कार लिया गया है उनकी सुरक्षा के लिए उनके नाम और
पहचान संबंधी अन्य विवरण रोक दिए गए हैं। रिपोर्ट में जिन बच्चों के नाम
लिए गए हैं वे सभी छद्मनाम हैं।
“जब भी अध्यापक नाराज होते हैं,वे हमें मुल्ला कह कर बुलाते हैं। हिंदू
लड़के भी हमें मुल्ला कहते हैं क्योंकि हमारे पिता दाढ़ी रखते हैं। जब वे
हमसे इस तरह बात करते हैं तो हम अपमानित महसूस करते हैं।”– जावेद, दिल्ली
का एक 10वर्षीय मुस्लिम लड़का
“अध्यापिका हमें हमेशा कमरे के एक कोने में बिठाती हैं और चाबी फेंक कर
मारती हैं (जब वह क्रोधित होती हैं)। जब सब बच्चों को खाना मिल जाता था तो
हमे तभी मिलता था जब कुछ बच जाता था।।।[धी]रे-धीरे [ह]मने स्कूल जाना छोड़
दिया”।
-श्याम, उत्तर प्रदेश का एक 14वर्षीय दलित बालक।
“हमसे अध्यापक की टांगों पर मालिश करने को कहा जाता था। यदि हम मना
करते तो वह हमें पीटते थे। वहाँ अध्यापकों के लिए एक शौचालय था,उसकी सफाई
हमसे कराई जाती थी”।
-नरेश, बिहार का एक 12वर्षीय दलित लड़का
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